प्रकाशित 2024-11-27
संकेत शब्द
- खिलौनों की सर्वव्यापकता,
- समाजशास्त्र,
- पारंपरिक खिलौने
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सार
प्रस्तुत ललित विचारात्मक लेख में खिलौनों की सर्वव्यापकता और मानव जीवन में अनिवार्यता बताई गई है। इसमें खिलौनों को उपमा की तरह नहीं वरन खिलौने के रूप में ही लिया गया है। खिलौने और समाजीकरण, विभिन्न सभ्यताओं में प्रचलित विभिन्न खिलौने, भिन्न सामाजिक आर्थिक स्थिति के अनुसार बच्चों के खिलौनों में अंतर, बच्चों द्वारा खुद चुने गए व बड़ों द्वारा उन्हें दिए गए खिलौने आदि के उद्देश्यों में अंतर की चर्चा की गई है। खिलौने के माध्यम से बच्चों को पूर्वाग्रहयुक्त भूमिकाओं के लिए तैयार करने का प्रयास, सांस्कृतिक मूल्यों के शिक्षा व समझ उत्पन्न करने में खिलौनों की भूमिका भी बताई गई है। यह भी वर्णन है कि पहले के कस्बे-देहात के बच्चे टूटी चूड़ियों, कंकड़ पत्थर अर्थात बिना किसी उपकरण के अपने लिए अकेले ही खेल रच लेते थे। किंतु यदि आज के सभ्य समाज के बच्चों के समूह को बिना खिलौने के कुछ भी करने को छोड़ दिया जाए तो वह तोड़फोड़, मुक्केबाजी, मारकाट आदि हिंसात्मक क्रियो की रचना में ही मन लगाएंगे। यह भी बताया है कि विभिन्न प्रदेशों के पारंपरिक खिलौने वहां की सामाजिक स्थिति व कौशल का दर्पण होते थे। खिलौने केवल खेल नहीं, यह समाज और संस्कृति से जुड़ी एक रचनात्मक कड़ी है।